देहरादून : हरेक व्यक्ति के पास तन,मन को श्रेष्ठ बनाने अधिकार जन्म से ही प्राप्त होता है। ईश्वर जन्म से ही हमे सर्व शक्तियों के लिये जन्म-सिद्ध अधिकार का अधिकारी बना देता है। महत्वपूर्ण यह है सभी व्यक्ति को एक द्वारा एक जैसा ही अधिकार मिलता है लेकिन धारण करने की शक्ति के कारण अलग-अलग व्यक्ति नम्बरवार बन जाते है। अर्थात सर्व शक्तिशाली बनने की जगह यथा-शक्ति बन जाते हैं। जीवन में सफलता का आधार शक्तियां ही हैं। जितनी शक्तियां, उतनी सफलता भी होगी ।
जीवन की मुख्य शक्तियां हैं – तन की, मन की, धन और सम्बन्ध की शक्ति । यदि इनमें में से एक भी शक्ति कम है तो जीवन में सदा व सर्व सफलता नहीं होती है । लौकिक जीवन की सफलता अलौकिक जीवन पर आधारित है। अलौकिक जीवन में सफलता के लिये भी चारों ही शक्तिया की जरूरत होती है। अलौकिक जीवन की सफलता में आत्मा और शरीर दोनों की तन्दरूस्ती आवश्यक है। क्योकि जब आत्मा स्वस्थ है तभी तन भी स्वस्थ होगा। क्योकि तन का हिसाब-किताब वा तन का रोग आत्मा की शक्ति पर निर्भर करता है। आत्मा की शक्ति, स्व-स्थिति के कारण हमे स्वस्थ अनुभव कराता है। इसके कारण हमारे मुख पर, चेहरे पर बीमारी के कष्ट के चिन्ह नहीं रहते है । हम मुख से कभी बीमारी का वर्णन नही करते है बल्कि कर्मभोग के वर्णन के बदले कर्मयोग की स्थिति का वर्णन करते हैं । क्योंकि बीमारी का वर्णन भी बीमारी की वृद्धि करने का कारण बन जाता है।
हम कभी भी बीमारी के कष्ट का अनुभव नहीं होगा, न दूसरे को कष्ट सुनाकर कष्ट की लहर फैलायेगे। बल्कि इसके स्थान पर परिवर्तन की शक्ति से अपने कष्ट को सन्तुष्टता में परिवर्तन कर सन्तुष्ट रह बने रहते है।इतना ही नही हम अपनी सन्तुष्टता की लहर इस प्रकार फैलाएंगे कि अन्य व्यक्ति स्वतः सन्तुष्ट हो जाते है। अलौकिक शक्ति प्राप्त शक्तियों के वरदान प्राप्त करके हम सहन शक्ति, सामना करने की शक्ति प्रयोग करने लगते है । हमे समय पर शक्तियों का वरदान मिल जाता है। यही हमारे लिए वरदान अर्थात् दुआ दवाई का काम कर देती है। क्योंकि सर्वशक्तिवान द्वारा जो सर्वशक्तियां प्राप्त हैं वह जैसी परिस्थिति हो , जैसा समय और जिस विधि से हम कार्य में लगाने चाहै, वैसे ही रूप से यह शक्तियां हमारा सहयोगी बन जाती हैं। यह शक्तियां हमारे लिये दवाई का भी काम करती है और हमे और अधिक शक्तिशाली बनाने का काम करती है । अर्थात तन की शक्ति को आत्मिक शक्ति के आधार पर सदा अनुभव कर सकते है अर्थात् सदा स्वस्थ रहने का अनुभव कर सकते है। इसमें स्वतः ही खुशी और शक्ति भरी हुई है!
यदि हम इस वरदान को यूज करने की जगह यदि शक्तियों को आर्डर में चलाने के बजाए बार-बार परमात्मा को अर्जी डालते रहते कि यह शक्ति दे दो, यह हमारा कार्य करा दो, यह हो जाए, ऐसा हो जाए। लेकिन अर्जी डालने वाले कभी भी सन्तुष्ट नहीं रह सकते हैं। एक बात पूरी होगी, दूसरी शुरू हो जायेगी। इसी प्रकार मन की शक्ति अर्थात् श्रेष्ठ संकल्प शक्ति भी हमारे लिये कार्य करती है । हमारे हर संकल्प में इतनी शक्ति होगी जो जिस समय जो चाहे वह कर सकते है और करा भी सकते है क्योंकि जहाँ श्रेष्ठ कल्याण का संकल्प है, वह सिद्ध जरूर होता है ।
संकल्प शक्तिवान होने के कारण हमारे मन कभी हमको को धोखा नहीं दे सकता है और दु:ख नहीं अनुभव भी करा सकता है। इसके साथ ही मन एकाग्र अर्थात् एक ठिकाने पर स्थित रहता है, भटकता नहीं है। हम जहाँ चाहै , जब चाहे मन को वहाँ स्थित कर सकते है । हमारा कभी मन उदास नहीं हो सकता है। इसी प्रकार तीसरी है धन की शक्ति अर्थात् ज्ञान-धन की शक्ति। ज्ञान-धन स्थूल धन की प्राप्ति स्वत: ही कराता है। जहाँ ज्ञान धन है, वहाँ प्रकृति स्वत: ही दासी बन जाती है। यह स्थूल धन प्रकृति के साधन के लिए है। ज्ञान-धन से प्रकृति के सर्व साधन स्वत: प्राप्त होते हैं । इसलिए ज्ञान-धन सब धन का राजा है। जहाँ राजा है, वहाँ सर्व पदार्थ स्वत: ही प्राप्त होते हैं, मेहनत नहीं करनी पड़ती। अगर किसी भौतिक पदार्थ प्राप्त करने में मेहनत करनी पड़ती है तो इसका कारण ज्ञान-धन की कमी है। परमार्थ व्यवहार को स्वत: ही सिद्ध करता है। इन्हें संकल्प करने की भी आवश्यकता नहीं होती है इनकी, स्वत: ही सर्व आवश्यकतायें पूर्ण होती रहती।
इसी प्रकार -अंतिम है, सम्बन्ध की शक्ति। सम्बन्ध की शक्ति के प्राप्ति की शुभ इच्छा इसलिए होती है क्योंकि सम्बन्ध में स्नेह और सहयोग की प्राप्ति होती है। जानते हो, डबल सम्बन्ध की शक्ति कैसे प्राप्त होती है।सम्बन्ध द्वारा हमे सदा नि:स्वार्थ स्नेह, सहयोग सदा ही होता रहता है। सहयोग के लिए, समय पर सहयोग मिले। अतः यदि सर्व शक्तियों को कार्य में लगाये और यूज करें। यथाशक्ति के बजाए सदा शक्तिशाली बने । अर्जी करने वाले नहीं, सदा प्रयास रहने वाले बने तो हर समस्या स्वतः दूर रहेंगी। हमे इस प्राप्त हुए भाग्य को सदा साथ रखना है । भाग्यविधाता को साथ रखना अर्थात् भाग्य को साथ रखना है।
अव्यक्त बॉप दादा महावाक्य मुरली 29 अक्टूबर 1987
लेखक : मनोज श्रीवास्तव, उपनिदेशक सूचना एवं लोक सम्पर्क विभाग उत्तराखंड